27 मई डाँ. बलदेव जी की 82 वीं जयंती पर विशेष

मेरे प्रेरणास्रोत डाॅ. बलदेव
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– डाॅ. वंदना जायसवाल

“किसी को न हुआ उसके कद का अंदाज ;
वो आसमां था मगर सर झुकाए बैठा था।”
             कितनी गहराई भरी है आदरणीया संतोष झांझी के इन शब्दों में। डॉ. बलदेव के लिए लिखी गई उनकी ये दो पंक्ति बेहद सार्थक ही है। माटी से जुड़े इस साहित्यकार ने अपना पूरा जीवन माटी के लिए ही लगा दिया। उन्होंने एक कवि हृदय पाया। उनकी कहानियों में प्रयुक्त एकाग्रता, जिज्ञासा, सत्यवादिता एवं अन्य नैतिक मूल्यों का अंतर्ग्रहण किया जा सकता है। स्वच्छ समालोचक के रूप में वे जाने जाते हैं। डॉ. बलदेव के विपुल आलोचना- समालोचना कर्म उनके विषय की सूक्ष्म पकड़, विस्तृत ज्ञान और अदम्य साहस की परिचायक है। उनकी अनुवाद शैली स्तरीय है साथ ही छत्तीसगढ़ महतारी के वैभव में श्री वृद्धि करती हुई उनकी लेखनी साहित्य में सदैव अमर रहेगी। चलिए आज अवतरण दिवस पर छत्तीसगढ़ी भाषा के सर्वश्रेष्ठ समीक्षक डॉ. बलदेव को शब्दों के श्रद्धा सुमन अर्पित करते हैं। साहित्यकार हृदय शब्दों के इर्द-गिर्द ही सुख की अनुभूति पाते हैं। शब्दों के मध्य उनका संसार बसता है।  
         जयप्रकाश ‘मानस’ द्वारा लिए गए साक्षात्कार में डॉ.बलदेव कहते हैं कि -“सही आलोचना गुण दोष का भली – भांति परीक्षण कर रचना में निहित गुढ़ार्थ को आस्वादन में परिणीत करती है, उसे लोगमंगलकारी रूप में प्रस्तुत करती है, सहितेन की भावना को बलवती बनाती है, आलोचना इसीलिए अंततः पुनर्रचना होती है।”  उन्होंने तत्कालीन नवोद्भित साहित्यकारों को प्रोत्साहित किया और साहित्य में धाक जमा चुके साहित्यकारों का समुचित मूल्यांकन भी किया। मूल्यांकन एक आवश्यक प्रक्रिया है जो न केवल कृति अपितु कृतिकार को भी मांजता है। पंडित मुकुटधर पांडेय जी भाव और भाषा दोनों दृष्टि से बलदेव को परिमार्जित कवि मानते थे, “प्रत्युपकार कारौ का तोरा” लिखकर पांडेय जी ने अपनी कृतज्ञता व्यक्त की थी। डॉ. कांति कुमार जैन के लिए डॉ. बलदेव एक ऐसे समर्पित अनुसंधाता और विवेचक का नाम है जो हिंदी साहित्य के अंधेरे कोने में पहुंचकर नवीन क्षितिज का उद्घाटन करता है। वहीं श्री कृष्ण कुमार त्रिवेदी उन्हें “छत्तीसगढ़ी समीक्षा का प्रतिमान” मानते हैं। डॉ. चित्तरंजन कर की दृष्टि में वे एक सफल लोकधर्मी साहित्यकार हैं। नंदकिशोर तिवारी जी उन्हें प्रकृति काव्य का कवि कहते हुए लिखते हैं कि छत्तीसगढ़ की करवट लेती हुई संस्कृति का आभास उनकी कविताओं में मिलता है। बलदेव जी की एक किताब “ढाई आखर” की समीक्षा श्री दानेश्वर शर्मा जी ने की है। डॉ. बलदेव की लेखनी किसी साधना से कमतर नहीं। जिस प्रकार छत्तीसगढ़ की धरातल साल, सागौन, सरई, लोहा, कोरेंडम, टीन, सोना, कोयले, हीरे आदि से परिपूर्ण है, उसी प्रकार मानवीय संवेदनाएं भी यहां के खेतों में लहलहाती फसलों के समान समृद्ध है। डॉ. बलदेव ने इन संवेदनाओं का वास्तविक मूल्यांकन किया है। रायगढ़ क्षेत्र की सांस्कृतिक चेतना को पांडेय बंधुओ के बाद जिस जिम्मेदार कंधे ने उठाया वह कंधा डॉ. बलदेव का ही था। इस संबंध में “रायगढ़ कथक घराना”, “रायगढ़ का सांस्कृतिक वैभव” उल्लेखनीय किताबें रहीं। छत्तीसगढ़ के महान समाज सुधारक, करुणा एवं सेवा के प्रति मूर्ति गुरु घासीदास के उपदेश दर्शन और साधना पर उनकी किताब “तपश्चर्या एवं आत्म चिंतन गुरु घासीदास” को पढ़कर गुरु के प्रति आदर एवं सम्मान के भाव जागृत हो उठते हैं। इसी तरह व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर लिखी गई उनकी किताबें साहित्य वाचस्पति पंडित लोचन प्रसाद पांडेय , अद्वितीय कवि आनंदी सहाय शुक्ल, डॉ.जे.आर. सोनी जैसी जीवनी परक रचनाओं में बलदेव जी की प्रतिभा प्रशंसनीय है। “छत्तीसगढ़ी कविता के सौ साल” छत्तीसगढ़ी साहित्यातिहास की प्रामाणिकता सिद्ध करती है। साथ ही हिन्दी के श्रेष्ठ आख्यानक प्रगीतों पर शोध करके उन्होंने अपनी विद्वत्ता भी सिद्ध की है। “खिलना भूलकर”, “वृक्ष में तब्दील हो गई औरत”, “सूर्य किरण की छांह में” उनके हृदय के उद्गार प्रतीत होते हैं।
                वे वास्तव में साहित्य और ज्ञान के फलदार वृक्ष थे, उन्हें जितना पत्थर मारा गया उन्होंने उतना अधिक फल दिया, साहित्य को समृद्ध किया। डॉ. बलदेव जी के संबंध में डाॅ. परदेसीराम वर्मा जी, सुशील भोले, पीसी लाल यादव, हरि ठाकुर, लक्ष्मण मस्तुरिया, पवन दीवान, संतोष रंजन शुक्ल, रजत कृष्ण, रामनाथ साहू आदि साहित्यकारों ने बहुत कुछ लिखा। आज आवश्यकता है उनकी विरासत को सुरक्षित और समृद्ध करने की। उनकी कृतियां समय के साथ पुनर्मूल्यांकन, संकलन, संवर्धन एवं नए कलेवर के साथ पुनः प्रस्तुतीकरण मांग रही हैं। छत्तीसगढ़ी का मानकीकरण डॉ. बलदेव का ही स्वप्न था।  छत्तीसगढ़ी को परमार्जित रूप देने में उन्होंने अपना योगदान दिया। उनकी रचनाएं आज विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में शामिल है। प्रतिभा किसी पुरस्कार की मोहताज नहीं होती किंतु इसका अर्थ यह नहीं कि समाज उसे किनारा करता चले। सम्मान देने से ही सम्मान मिलता है। छत्तीसगढ़ी भाषा के सर्वश्रेष्ठ समीक्षक को मेरा सादर प्रणाम,नमन,वंदन।

डॉ वंदना जायसवाल व्याख्याता हिंदी जिला शक्ति छत्तीसगढ़

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